अंजू, अक्सर मुझे आते-जाते मिल जाती है. होठों पर लिपिस्टिक, माथे पर बिंदी लगाए, हाथों में चूड़ियां पहने और हमेशा मुस्कराते हुए.
लिफ़्ट में या सोसाइटी के गेट पर जब भी वो मुझसे टकराती है तो मैं उसका हालचाल पूछ लेती हूं.
उसे कभी-कभी मैं घर के काम में मदद के लिए बुलाती रही हूं. हर बार की तरह जब एक दिन मैंने उससे हाल चाल पूछा तो मुस्कुरा कर उसने कहा, तबीयत ठीक नहीं.
फिर बोली, मेरा बस रोने का मन करता है. पिछले मंगलवार बस रोती रही.
ये सब बातें वो बड़ी तेज़ी से चेहरे पर मुस्कुराहट लिए अपने अवधी अंदाज में बोल गई. ऐसी बात उसने मुझे पहले भी कही थी.
अंजू का बार-बार इस बात को कहना कि मेरा सिर्फ़ रोने का मन करता है, किसी समस्या की ओर इशारा करता है?
क्या निम्न मध्यमवर्ग से आने वाली अंजू या उसका परिवार ये समझ पाएगा कि उसे किसी डॉक्टरी मदद की ज़रूरत है?
क्या अंजू जैसी मानसिक स्थिति में है, उसे ही कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर माना जाता है?
क्या कहते हैं आंकड़े?
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (निम्हंस) ने 2016 में देश के 12 राज्यों में एक सर्वेक्षण करवाया था. इसके बाद कई चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं.
आंकड़ों के मुताबिक आबादी का 2.7 फ़ीसदी हिस्सा डिप्रेशन जैसे कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर से ग्रसित है.
जबकि 5.2 प्रतिशत आबादी कभी न कभी इस तरह की समस्या से ग्रसित हुई है.
इसी सर्वेक्षण से एक अंदाजा ये भी निकाला गया कि भारत के 15 करोड़ लोगों को किसी न किसी मानसिक समस्या की वजह से तत्काल डॉक्टरी मदद की ज़रूरत है.
साइंस मेडिकल जर्नल लैनसेट की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10 ज़रूरतमंद लोगों में से सिर्फ़ एक व्यक्ति को डॉक्टरी मदद मिलती है.
ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में मानसिक समस्या से ग्रसित लोगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. और आने वाले दस सालों में दुनिया भर के मानसिक समस्याओं से ग्रसित लोगों की एक तिहाई संख्या भारतीयों की हो सकती है.
जानकार ये आशंका जताते हैं कि भारत में बड़े स्तर पर बदलाव हो रहे हैं. शहर फैल रहे हैं, आधुनिक सुविधाएं बढ़ रही हैं. बड़ी संख्या में लोगों का गांवों से पलायन हो रहा है. इन सब का असर लोगों के मन मस्तिष्क पर भी पड़ सकता है. लिहाज़ा डिप्रेशन जैसी समस्या के बढ़ने की आशंका है.
दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज़ (इब्हास) के निदेशक डॉक्टर निमीश देसाई का कहना है, "भारत में परिवारों का टूटना, स्वायत्ता पर ज़ोर और टेक्नॉलॉजी जैसे मुद्दे लोगों को डिप्रेशन की ओर धकेल रहे हैं क्योंकि समाज पाश्चात्यकरण की ओर टॉप फाइव गियर में बढ़ रहा है, ये बीसवीं सदी का पोस्ट वर्ल्ड वार का सोशल टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट का मॉडल है. यहां सवाल ये उठता है कि क्या गुड डेवलपमेंट ज़रूरी है या गुड मेंटल हेल्थ ज़रूरी है?"
डॉक्टर निमीश हालांकि इसे लेकर आश्वस्त भी हैं कि लोगों में अब मेंटल हेल्थ की अहमियत की समझ पैदा होने लगी है लेकिन वे यह भी मानते हैं कि समाज का एक तबका इस पर खुल कर बातें करना पसंद नहीं करता और इसे एक टैबू के तौर पर लेता है.
2015 में हिंदी फ़िल्मों की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने एक न्यूज़ चैनल के इंटरव्यू में बताया था कि वे डिप्रेशन की शिकार हुई थीं. उन्हें अभिनय के लिए काफी प्रशंसा मिल रही थी, अवार्ड्स मिल रहे थे लेकिन एक सुबह उन्हें लगा कि उनका जीवन दिशाहीन है, वे लो फील करती थीं और बात-बात पर रो पड़ती थीं.
क्या होता है कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर?
दिल्ली स्थित सेंट स्टीफ़न अस्पताल में मनोचिकित्सक डॉक्टर रूपाली शिवलकर का कहना है कि कॉमन मेंटल डिसऑर्डर या सीएमडी से 30-40 फ़ीसदी लोग प्रभावित हैं और लोग ये समझ नहीं पाते हैं कि वो एक बीमारी हैं.
सीएमडी के लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं. जैसे, किसी भी काम में मन न लगना, शरीर में कोई बीमारी न होने के बावजूद थकान महसूस करना, नींद आते रहना, बहुत चिड़चिड़ापन, गुस्सा या रोने का मन करना आदि.
वहीं, बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव, स्कूल जाने के लिए मना करना, गुस्सैल हो जाना, आलसी हो जाना या बहुत एक्टिव हो जाना.
अगर ये लक्षण लगातार दो हफ़्ते तक रहते हैं तो ये सीएमडी की ओर इशारा करते हैं.
डॉक्टर रुपाली शिवलकर बताती हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की हॉर्मोनल दिक्कत, हाइपरथॉइरॉडिज़्म, डायबीटिज़ या क्रोनिक यानि लंबे समय से किसी रोग से पीड़ित होता है तो ज़्यादा ध्यान देने की ज़रुरत पड़ती है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन या डब्ल्यूएचओ के अनुसार दुनिया भर में 10 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं और बच्चा पैदा करने के बाद 13 प्रतिशत महिलाएं डिप्रेशन से गुजरी हैं.
वहीं, विकासशील देशों में आंकडा ऊपर हैं जिसमें 15.6 गर्भवती और 19.8 प्रतिशत डिलीवरी के बाद डिप्रेशन से गुजर चुकी है. बच्चे भी डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं.
भारत में 0.3 से लेकर 1.2 फीसदी बच्चे डिप्रेशन में घिर रहे हैं और अगर इन्हें समय रहते नहीं डॉक्टरी मदद नहीं मिली तो सेहत और मानसिक स्वास्थ्य संबधी जटिलताए बढ़ सकती हैं.