कोरोना वायरस के बहाने भारत में मज़दूरों के अधिकार निशाने पर

मज़दूर संगठनों से जुड़े लोगों का कहना है कि औद्योगिक क्रांति से पहले जिन हालात में मज़दूरों को काम करने पर मजबूर होना पड़ता था, देश के कुछ प्रमुख राज्यों में मज़दूरों के लिए कुछ वैसे ही हालात हो जाएंगे.



क्योंकि देश के कई राज्यों ने कोरोना से लड़ने के नाम पर श्रम क़ानून के कई प्रावधानों को तीन सालों के लिए ताक पर रख दिया है, यानी उद्योगपतियों और मालिकों को छूट दे दी गई है वे मज़दूरों की बेहतरी के लिए बनाए गए क़ानूनों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं.


इसमें सबसे अहम फ़ैसला उत्तर प्रदेश की सरकार ने बुधवार को अपने मंत्रिमंडल की बैठक में लिया, जिसमें तय किया गया कि ऐसा 'प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने के लिए' किया जा रहा है.


मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक के बाद जारी किए गए बयान में कहा गया कि अब राज्य में श्रमिकों से जुड़े सिर्फ़ तीन क़ानून ही लागू होंगे, बाक़ी सारे क़ानून तीन साल के लिए प्रभावी नहीं रहेंगे.


ये क़ानून हैं--भवन और निर्माण श्रमिक क़ानून, बंधुआ मज़दूरी विरोधी क़ानून और श्रमिक भुगतान क़ानून की पांचवीं अनुसूची.


बारह घंटों की पाली


बदली हुई परिस्थितियों में अब मज़दूरों को 12 घंटे की पाली में काम करना पड़ेगा.


हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में भी मज़दूरों को आठ के बजाय 12 घंटों की पाली में काम करना पड़ेगा.


उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आरके तिवारी ने मंत्रिमंडल के फ़ैसले के बारे में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि अब प्रदेश के बहुत सारे प्रवासी मज़दूर वापस अपने घरों को लौट रहे हैं. इसका मतलब है कि सबको रोज़गार की ज़रूरत पेश आएगी.


उसी तरह मध्य प्रदेश सरकार ने तो श्रमिक अनुबंध क़ानून को 1000 दिनों के लिए निरस्त करने का फ़ैसला किया है.


इसके अलावा 'औद्योगिक विवाद क़ानून' और 'इंडस्ट्रियल रिलेशंस एक्ट' को भी निरस्त कर दिया है.